AC की राहत छोड़ें तो मिले गर्मियों की गंध

गर्मी के मौसम को लेकर कोई अच्छी बात अब भूले से भी सुनने को नहीं मिलती। पसीना, चिपचिप, धूल-धुआं और घुटन। अप्रैल, मई और जून के ये महीने हर साल आखिर क्यों चले आते हैं? अजीब बात है कि इतनी दुष्ट छवि के बावजूद लोगों से बात करें तो उनके जीवन की सबसे अच्छी स्मृतियां गर्मियों से ही जुड़ी जान पड़ती हैं। स्कूल की छुट्टियां। पढ़ाई से आजादी। भरी दोपहरी में बड़ों की नजर बचाकर दोस्तों के साथ फुर्र हो जाना। फालसे का शरबत। रूह अफजा वाली लस्सी, मोटी मलाई मारके। जलती धूप में चलते-चलते किसी पीपल तले सुस्ता लेना। वहां झुरझुर हवा ऐसी कि पेड़ की जड़ पर उठंगे हुए ही एक नींद निकाल देना। सूरज नीचे जाने के साथ दरवाजे पर पानी छिड़कने की खुशबू, जिसको कहीं से भी पा लेने के लिए आप छिंगुली भर की शीशी में मिट्टी वाला कनौजिया इत्र खरीदते हैं!

मई की गर्मियां जब बेचैन कर देती हैं, तब सड़कों पर राहत देता है अमलतास (फोटोः BCCL)

बरसती आग से राहत
हमें पता भी नहीं चलता और कुछ चीजों को लेकर एक पक्की राय बन जाती है। गर्मी है तो पंखा चलना ही चाहिए। घर में एयर कंडीशनर हो तो और अच्छा। स्विच दबाने की देर है, याद ही नहीं पड़ता कि बाहर आग बरस रही है। इंसान के शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस या 98.6 डिग्री फारेनहाइट पर स्थिर रहता है। ज्यादा गर्मी में इसे ठंडा रखना पड़ता है और ज्यादा ठंड में गर्म। कमोबेश यही हाल पशु-पक्षियों का भी है। वे भी ठंड और गर्मी, दोनों से राहत के उपाय खोजते हैं। लेकिन राहत हासिल करना और बात है, मौसमों से बिल्कुल कट जाना कुछ और ही है। एक बार सोचकर देखें कि गर्मियां भूल जाने के लिए कहीं हमने अपने दिमाग में भी तो कोई एसी नहीं फिट करा लिया है!

2020 में दुनिया भर में 10 करोड़ 70 लाख के आसपास रूम एसी बेचे गए थे। ग्लोबल इंडस्ट्री एनालिसिस के मुताबिक यह आंकड़ा 2026 में 13 करोड़ 24 लाख निकलेगा। यह भी दिलचस्प है कि 6 करोड़ 59 लाख, यानी पूरी दुनिया के आधे एसी तब सिर्फ चीन में बिक रहे होंगे, जिसका एक चौथाई हिस्सा साल में तीन महीने बर्फ से ढका रहता है। हाल तक कहा जाता था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ठंडे मुल्कों की पकड़ गर्म मुल्कों पर कम होने के साथ अमीरी की रफ्तार इस तरफ बढ़ गई है। लेकिन डेटा बता रहा है कि गर्मी ठंडे मुल्कों में भी बढ़ रही है। ऐसे में एसी की बढ़त उस तरफ भी देखी जा रही है।

बहरहाल, हम बात कर रहे थे दिमाग में लगे हुए एसी की। इसका मतलब है- गर्मियों की धूप की छुअन तक अपनी चमड़ी पर झेले बगैर उसे नुकसानदेह या खतरनाक मानकर खुद को दड़बे में बंद कर लेना। जाहिर है, यह समझ बनते-बनते बनी है। जान-बूझकर तो कोई ऐसा कभी नहीं करता। लेकिन एक बार यह हो जाता है तो आप सिर्फ एक मौसम से, बल्कि अपने देश के आम लोगों से, इसकी खेतिहर उत्पादन प्रक्रिया से, साथ में भारत की सभ्यता-संस्कृति के कुछ गहरे तत्वों से भी खुद को अलग कर लेते हैं। इस अलगाव की भरपाई कई लोग बिना सिर-पैर के किस्सों और इरादतन फैलाई जा रही अफवाहों से करने लगते हैं, लेकिन वह अलग खेल है।

ठोस अनुभव से कहूं तो मार्च और अप्रैल में चाहे जितनी भी गर्मी पड़ रही हो, धूप चाहे कितनी भी तीखी क्यों न हो, गांव में रहते हुए इन महीनों के न सिर्फ दिन बल्कि ज्यादातर रातें भी मैंने घर से बाहर ही गुजारी हैं। यह गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसों, अरहर और न जाने कितनी छिटपुट फसलों की कटाई, दंवाई और ओसाई का मौसम है। हारवेस्टर और थ्रेशर आ जाने से ये काम अब जल्दी निपट जाते हैं। उसके बाद दानों को कोठार में और डंठल-भूसे को इनके लिए बने कोठों में रखना होता है, जिसे मशीनी ढंग से नहीं किया जा सकता।

फिर भी यह तो है कि मशीनों ने डेढ़-दो महीने की मशक्कत को एक पखवाड़े की व्यस्तता में बदल डाला है। इसके फायदों के बारे में कुछ कहना गैरजरूरी है, लेकिन नुकसान यह हुआ है कि खलिहान में बीतने वाली रातें अब दुनिया से विदा हो चुकी हैं। बुरी तरह थका शरीर लिए तारों को देखते हुए नींद के आगोश में खो जाने का मामला मेरी निजी स्मृति में ऐसी ही रातों के साथ जुड़ा है। और इनसे ही जुड़ी हैं कुछ खुशबुएं, जिनका अभी बयान करना भी मुश्किल है।

रातरानी और केवड़े की महक से हममें अधिकतर लोग परिचित होंगे। सीधे नहीं तो इत्र की शक्ल में। कुछ लोग शायद आछी की गमक भी जानते हों, जिसको लेकर कवि त्रिलोचन की एक कविता का नायक मग्घू कहता है, ‘आछी के पेड़ पर जच्छ रहा करते हैं/ जो इसके पास रात होने पर जाता है/ उसको लग जाते हैं/ सताते हैं/ वह किसी काम का नहीं रहता।’ रातरानी, केवड़ा और आछी, तीनों गर्मियों की रातों में खिलने वाले अलग-अलग आकार-प्रकार के सफेद फूल हैं, जिनका जादू सुबह होने पर सिमटने लगता है। लेकिन इनके अलावा नीम और बकाइन के फूलों, आम के बौरों और महुए के कूचों की मादक गंध भी खलिहान की रातों में तैरती है, जिसमें कुछ लोगों को देवी की सवारी उतरने जैसा अहसास होता है।

कर्णिकार यानी अमलतास
पीछे जाएं तो कवि कुलगुरु कालिदास के कई अद्भुत श्लोकों को ज्ञानीजन हड़बड़ी दिखाते हुए गर्मियों के बजाय वसंत के खाते में डाल देते हैं। उनके शापित ग्रंथ ‘कुमारसंभव’ के इस मोहक पद- ‘उमाsपि नीलाsलकमध्यशोभि विसंसयंती नवकर्णिकारम्/ चकार कर्णच्युतपल्लवेन मूर्ध्ना प्रणामं वृषभध्वजाय’ में शिव को प्रणाम कर रही पार्वती की नीली लटों से सरकता हुआ ताजा फूल ‘कर्णिकार’ असल में हमारा अमलतास ही है जो वसंत में नहीं, बीतते अप्रैल और शुरुआती मई की सिर चकरा देने वाली गर्मियों में खिलता है। इसलिए पंखे और एसी की राहत अच्छी है, पर इस देश का प्यार आपको गर्मियां ही दे पाएंगी, जिन्हें छूने के लिए थोड़ी हिम्मत जुटानी पड़ेगी।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं



Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *